Saturday, February 27, 2010

रिश्तों की पवित्रता को बनाए रखिए

हिमाचल में खतरे में हैं रिश्ते। दिनों-महीनों में शादियां टूट रही हैं। भाई-बहन ब्याह रचा रहे हैं। बेटा मां का कत्ल कर रहा है। यही हाल रहा तो कल को मनुष्य और पशु में क्या अंतर करेंगे?

खतरे में है रिश्तों की पवित्रता। बेटे केहाथों मां का कत्ल। घर में बुजुर्ग मां-बाप पर अत्याचार। दिनों-महीनों में शादियों का टूटना। भाई-बहन जीवन साथी बन रहे हैं। अधेड़ स्कूल जाती छात्राओं से छेडख़ानी कर रहे हैं। दफ्तरों में काम करती महिलाओं पर अफसरों की बुरी नजर है। गुरु-शिष्या का रिश्ता सुरक्षित नहीं रहा। शादीशुदा इधर-उधर मुंह मारकर समाज में विकृतियां पैदा कर रहे हैं। यहां तक कि बाप-बेटी और ससुर-बहू के रिश्ते पर भी आधुनिकता के छींटे पड़े हैं। अविश्वास बढ़ रहा है।

हिमाचल में हाल ही की घटनाओं पर एक नजर। चंबा में जमा दो पास एक युवक को कंपनी में नौकरी लगी तो परिवार वालों ने उसका घर बसाने की सोची। शादी हो गई। विवाह के चार-पांच माह तक सब ठीक रहा। एक दिन दुल्हन को याद आया कि मैं तो बीए पास हूं और मेरा पति प्लस टू। इसी वजह से संबंध में दरार पड़ गई। दुल्हन मायके चली गई। तर्क देखिए। शिमला में एक अच्छे घर के लड़के ने आर्थिक रूप से कमजोर परिवार की लड़की ब्याही, ताकि संतुलन बना रहे। छह माह के अंदर यह बंधन भी टूट गया। बहुत समझाया। पर परिणाम सिफर रहा। आरोप है कि विवाहिता अपने पुराने दोस्तों को नहीं भुला पाई। छह माह तक साथ रहा पति उसे जीवन भर का साथ निभाने को नहीं मना पाया। आगे वही हो रहा है जो होता है। दोनों परिवार कोर्ट-कचहरियों में दिन खराब कर रहे हैं। कांगड़ा की घटना तो इनसे भी दो कदम आगे दिखती है। एक अच्छे सरकारी ओहदे पर कार्यरत युवक ने एमफिल प्लस शिक्षित लड़की को जीवन संगिनी बनाया। दो माह में ही इनका संबंध विच्छेद हो गया। लड़की का कहना है कि उसे लड़का पसंद नहीं है। यह क्या बात हुई? अब अंदर की बात कुछ और भी हो सकती है। शादी एक-दो दिन में नहीं हो जाती। लड़का-लड़की एक दूसरे को देखते हैं। उसकेबाद रिंग सेरेमनी। आगे भी कई कुछ। फिर हर दिन मोबाइल पर घंटों लटकेरहना। बावजूद इसके वे एक-दूसरे की पसंद-नापसंद न जान पाए तो उनकेमास्टर डिग्री प्लस पढऩे का कोई फायदा नहीं। समाज की नजरों में उनकी शैक्षणिक योग्यता 'शून्यÓ है।

पालमपुर में खूंखार बहू का तांडव देखिए। डर के मारे पति घर से भाग गया तो बूढ़े सास-ससुर की पिटाई। समाज के सभ्य लोगों से जब यह सहा न गया तो महिला मंडल ने पालमपुर थाना तक मामला पहुंचाया। कांगड़ा की ही एक अन्य घटना ने जैसे समाज का सिर शर्म से झुका दिया। यहां अपने ही कुल में युवक-युवती प्यार कर बैठे। दोनों रिश्ते में भाई-बहन लगते हैं। घर वालों ने समझा-बुझा कर दूर किया तो दोनों ने बिना किसी शर्म-हया के भागकर शादी रचा ली।

लगता है हम मां-बहनों और बहू-बेटियों का रिश्ता भूल रहे हैं। सिरमौर के राजगढ़ में ५० साल के एक व्यक्ति को स्कूल जाती छात्रा से छेड़छाड़ के आरोप में गिरफ्तार किया गया। यह चाचा साहब पहले भी ऐसा कर चुके हैं। राह चलती छात्राओं और महिलाओं से छेड़छाड़ करना इनकी आदत सी बन गई है। क्या सनक है? शिलाई (सिरमौर) की १६ साल की लड़की से हरियाणा के साठ वर्ष के व्यक्ति ने नौकरी का झांसा देकर दुष्कर्म किया। सिरमौर के ही पूर्व सैनिक पर दो छात्राओं को नौकरी का झांसा देकर दुराचार का आरोप सिद्ध हुआ है। उसे जिला सत्र एवं न्यायाधीश नाहन ने तीन वर्ष जेल और ८० हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई है। सोलन केसलोगड़ा जनजातीय छात्रावास में बच्चियों से छेड़छाड़ का मामला तब सामने आया जब उमंग फाउंडेशन ने पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी तक यह बात पहुंचाई। शिमला के टुटू स्थित मूक बधिर आश्रम में छात्राओं से छेडख़ानी की वारदात अब तक जहन में है। हमीरपुर में एक ५५ वर्षीय व्यक्ति ने मंदबुद्धि महिला से दुराचार किया। उक्त महिला शादीशुदा है। मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण मायकेमें रह रही है। पिछले दिनों सोलन में एक विक्षिप्त महिला ने सड़क पर बच्चे को जन्म दिया था। हो न हो उक्त महिला भी दुराचार की शिकार हुई होगी। माना कि बाजार में भीख मांगकर गुजर-बसर करने वाली महिला हमारी कुछ नहीं लगती। पर इनसानियत का रिश्ता तो बनता ही है।

कुछ समय पहले प्रदेश में एक बाप पर बेटी से दुष्कर्म का आरोप लगा था। साथ ही यह भी कहा गया था कि आरोपी नशे में था। कार्यालयों में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। महिला आयोग में ऐसे २० अफसरों की शिकायतें आई हैं, जो महिला कर्मियों को तंग करते हैं। चार निजी स्कूलों केप्रिंसिपल भी आरोपी हैं। सीआईडी ने साल २००९ में दुराचार के मामलों का अध्ययन किया है। कुल १८२ में से ११४ केस निकट संबंधियों के खिलाफ हैं। अपने करीबी लोग ही संबंधों को तार-तार कर रहे हैं। यही हाल रहा तो मनुष्य और पशु में क्या अंतर करेंगे?

एक या दो पीढ़ी पहले दूल्हा-दुल्हन शादी के बाद ही एक-दूसरे को देखते थे। आठ-दस बच्चों के परिवार हमारे पूर्वजों ने सफलतापूर्वक चलाए हैं। इज्जत, मान-मर्यादा को बचाकर रखा। क्योंकि उनमें आपसी विश्वास, सहनशीलता, सभ्यता और समझौतावादी सोच थी। हमें चौंतड़ा (मंडी) की लता की तरह उदाहरण पेश करना होगा। तीन माह में विधवा हो गई लता ने मुखाग्नि देकर चिता तक पति का साथ निभाया। हमें समय रहते समझना होगा और संभलना भी होगा। अन्यथा कल आने वाली पीढ़ी के बहुत कम सभ्य लोग हमें कभी माफ नहीं करेंगे।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)

Friday, February 26, 2010

हिमाचल की जवानी का दर्दनाक पहलू

(28 दिसंबर 2009 को अमर उजाला में प्रकाशित)
युवकों की आत्महत्याएं चिंता का विषय है। पिछले सप्ताह करीब आधा दर्जन युवाओं ने खुदकुशी कर ली। हमने इसे कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। यह एक बड़ी प्रशासनिक विफलता है।
हिमाचल में एक सप्ताह में आधा दर्जन आत्महत्याएं। यानी हर दिन एक खुदकुशी। मरने वाले सभी युवक। हताश क्यों है युवा वर्ग? निराशा की वजह क्या है? शायद हमने इस दिशा में सोचा ही नहीं। या यूं कहें चिंतन की जरूरत नहीं समझी। समय न होने का बहाना भी बना सकते हैं। मामला गंभीर है। परिस्थितियां जटिल हैं। यह नहीं कह सकते कि जान बुजदिल देते हैं। यह सोचकर भी पीछा नहीं छुड़ा सकते-जो मर गया उसे मरने दो। यह हमारी बहुत बड़ी प्रशासनिक विफलता है। बिलासपुर में 15 दिसंबर के दिन दोपहर को एक युवक ने कंदरौर पुल से छलांग लगा दी। जान इतनी आसानी से नहीं निकलती। गोविंदसागर में एक बार डूबने के बाद पानी ने उसे 'उगलाÓ। बचाव के लिए हाथ-पांव मारने लगा। पास खड़े लोगों ने उसे बाहर निकाला । कंदरौर के आयुर्वेदिक अस्पताल में उपचार के बाद यह कहकर घर भेज दिया कि अब हालत ठीक है। होनी को कुछ और ही मंजूर था। रात को घर में उसकी मौत हो गई। दो दिन बाद पालमपुर में दो युवकों ने जहर खाकर इस दुनिया को अलविदा कह दिया। अगले दिन ऐसा ही एक दर्दनाक हादसा कालका-शिमला रेलवे ट्रैक पर सोलन में हुआ। रेलवे ट्रैफिक पुलिस के मुताबिक एक नौजवान अचानक ट्रेन के सामने आ गया। इस बार मरने वाला युवक हरियाणा का था। हाल ही में शिमला में एक युवक ने असमय जान दे दी। मंडी में नौजवान ने तेजाब पीकर इहलीला समाप्त करने की कोशिश की। २२ दिसंबर को रिकांगपिओ में निरमंड के युवक ने फंदा लगा आत्महत्या कर ली। २४ दिसंबर को ठियोग में युवक कार में मृत मिला। बीते शनिवार पालमपुर में युवक ने जहर खाकर जान दे दी। इन्हीं मामलों से जुड़ी दस साल पुरानी दुखदायक घटना मन को जैसे व्यथित कर गई। धर्मशाला महाविद्यालय से १९९६ में गणित विषय के साथ एक होनहार युवक सुशील (काल्पनिक नाम) ने बीए पास की। सुशील शाहपुर के एक गांव का रहने वाला था। परिवार की हालत इतनी अच्छी नहीं थी। वह भीड़ से हटकर चलता था। बीए के बाद सुशील ने बीएड की। कंप्यूटर सीखा। एक दिन बहुत दुखद समाचार मिला। जैसे किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था। सुशील ने जहर खाकर खुदकुशी कर ली थी। इसकी वजह उसकी भविष्य को लेकर चिंता बताई गई। बहुत दुख हुआ। और कर भी क्या सकते थे। पिछले सप्ताह दक्षिणी दिल्ली के तिलकनगर से संयुक्त राष्ट्र से जुड़े एक नेपाली युवक का अपहरण कर लिया गया। अपहरणकर्ताओं ने पांच लाख की फिरौती मांगी। अपहृत युवक को नालागढ़ में छुड़ा लिया गया। इसमें सात आरोपियों में से पांच हिमाचल के निकले। उत्तरप्रदेश-बिहार में फिरौती मांगना आम बात हो सकती है। जम्मू कश्मीर में गोली चलना सामान्य बात हो सकती है, पर हिमाचली युवकों का अपहरण में शामिल होना बड़ी बात है।
युवाओं की हताशा के पीछे सबसे बड़ा कारण असुरक्षित भविष्य है। विधानसभा के शीतकालीन सत्र में उद्योग मंत्री किशन कपूर ने सदन को जानकारी दी कि ३१ अक्तूबर २००७ तक रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या ७,८०, ९७५ थी। दो साल में इसमें २,८९,०८६ का इजाफा हुआ। मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने सदस्यों को बताया कि जनवरी २००६ से लेकर जुलाई २००८ तक सरकारी/अर्धसरकारी/बोर्ड/निगमों में ४५,८४४ पद सृजित किए गए। १५ जुलाई २००९ तक इनमें से ३२,७४२ भरे जा चुकेहैं। उद्योग मंत्री के अनुसार हिमाचल में कुल १०,७०,०६१ बेरोजगार हैं। सरकारी रिकार्ड में ये बेरोजगार हैं। इसका मतलब यह नहीं कि ये कुछ नहीं कर रहे हैं। कोई दुकान चला रहा है, किसी ने टैक्सी रखी है, कोई निजी चालक-परिचालक है, किसी ने स्कूल खोला है तो कुछ बिजनेस भी कर रहे हैं। निजी कंपनियों ने भी रोजगार के द्वार खोले हैं। पर अकुशल कामगार को चार-पांच हजार से ज्यादा वेतन नहीं मिलता। चार-पांच हजार में क्या होता है। कुछ जिनकी चलती है, वे ठेकेदारी कर रहे हैं। आत्महत्या वे कर रहे हैं जिनके पास करने को कुछ नहीं है। जिसका बिजनेस फेल हो गया। जिसने कारोबार के लिए कर्ज लिया, पर सफल नहीं हो पाया।
हां, प्रेम प्रसंग भी आत्महत्या की एक छोटी सी वजह है। बेरोजगारों में युवतियां भी हैं। पर सदियों से परिवार चलाने की जिम्मेदारी पुरुष पर रही है। रोजगार पर लगी लड़की बेरोजगार से कभी घर नहीं बसाती। पुरुषों के मामले में उल्ट है। संतुलन कहां है। विषमताएं तो बढ़ेंगी ही। युवाओं का इस तरह से असमय काल का ग्रास बनना देश-प्रदेश केभविष्य के लिए अच्छा नहीं है। युवक की मौत पर मातम होता है। दस-बारह दिन शोक मनाकर सब भूल जाते हैं। और फिर एक आत्महत्या। पुलिस मामला दर्ज करती है। कुछ दिन बाद फाइल बंद हो जाती है। नीति निर्धारकों की जिम्मेदारी है कि इन मामलों को गंभीरता से लें। हर किसी को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती। पर शैक्षणिक योग्यता के अनुसार बेरोजगारी भत्ता और पेंशन योजनाएं शुरू कर 'आसÓ जगाई जा सकती है। इन मामलों पर चिंतन के लिए समय निकालना होगा। अन्यथा कल के लिए बहुत देर हो जाएगी।

नौकरी छीनने की सियासत छोडि़ए

(अमर उजाला मेंं 29 जनवरी, 2010 को प्रकाशित)

हिमाचल में पूर्व सरकार की नियुक्तियों को अवैध ठहराने की जैसे रीत पड़ती जा रही है। इससे आम आदमी पीड़ा में है। क्या किसी की नौकरी छीनना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं?

आज मेरी सरकार कल को आपकी। पांच साल हम लाल बत्ती वाली गाडिय़ों में घूमेंगे, उसके बाद आपकी बारी। ये हमारे कर्मचारी, वे आपके। ऐसी सोच ने व्यवस्थाएं जटिल कर दी हैं। मुश्किलें बढ़ी हैं। विसंगतियां जवानी पर हैं। स्वार्थ और पक्षपात हावी हैं। न्याय नहीं हो पा रहा है। क्योंकि हम निष्पक्ष नहीं हैं। वोटर दबाव में है। पीडि़त पक्ष किससे इंसाफ मांगे? दूरदर्शिता तो जैसे हमसे बहुत दूर हो गई लगती है।
शुरुआत पीटीए शिक्षकों से। अक्तूबर 2003 में पीटीए शिक्षकों की भर्ती के लिए अधिसूचना जारी हुई। शुरू-शुरू में शिक्षकों ने दो सौ-पांच सौ में सेवाएं दीं। कुछ मुफ्त में भी लगे। जून 2006 में वीरभद्र सरकार ने पीटीए के लिए सरकारी ग्रांट शुरू की। इसके बाद इस नौकरी के लिए भीड़ लगी। प्रदेश में पीटीए शिक्षकों की संख्या ६८०६ तक पहुंच गई। यहीं से ये शिक्षक राजनीति का केंद्र बने। आरोप है कि कांग्रेस सरकार ने 'अपने आदमीÓ लगाए। वर्तमान सरकार ने अप्रैल २००८ में इन भर्तियों की जांच का आदेश जारी किया। एसडीएम स्तर पर जांच शुरू हुई। प्रदेश में लगभग ३०८७ शिकायतें मिलीं। जांच को निजी रंजिश निकालने का भी जरिया बनाया गया। जिसका पड़ोसी से जमीन और पानी को लेकर विवाद था, उसने भी एसडीएम के नाम 'चिट्ठीÓ डाल दी। सितंबर २००८ में लगभग ९७७ पीटीए शिक्षकों की नियुक्ति को अवैध बताकर हटा दिया गया। पीडि़तों ने उपायुक्तों तथा कोर्ट से न्याय मांगा। दोबारा जांच में लगभग ५७१ शिक्षकों को बहाल किया गया। राजनीति पर फिर भी विराम नहीं लगा। पदोन्नति और तबादलों ने भी कइयों की नौकरी ली। अब तक करीब सवा दो सौ अध्यापकों को घर बैठाया जा चुका है। जो सेवारत हैं, हर समय चिंतित हैं। आज नौकरी है। कल का पता नहीं। स्कूल के गेट पर जब भी नया आदमी दिखता है। पीटीए शिक्षकों को यही डर होता है कि नियमित अध्यापक तो नहीं आ गया। ग्रांट मिलती है, वह भी घुट-घुट कर। सरकार को याद दिलानी पड़ती है। छह-छह माह बाद पैसे मिलते हैं। अठारह-२० साल किताबों में खपाने के बाद तीन-चार हजार में परिवार का पेट पाल रहे हैं। प्रदेश में कई स्कूल इनके सहारे हैं। फिर भी ये राजनीति का केंद्र हैं। अजीब विरोधाभास है। पीटीए की नौकरी लगने के बाद कई शिक्षकों ने इसी आस से शादी कर ली, भविष्य अच्छा है। आज सवा दो सौ बेरोजगार हो गए हैं। पति-पत्नी दोनों बिना काम के हैं। हाल ही में मंडी के निहरी स्कूल में पीटीए पर तीन साल से सेवारत टीजीटी मेडिकल को बाहर कर दिया गया। परिवार वाले किसे कोसें? कहां जाएं?
विडंबना है। सरकारी प्रतिनिधि बार-बार यही दावा कर रहे हैं कि ये सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। पर इंसान तो हैं। इसी देश के नागरिक हैं। कम से कम 'घुंघरूÓ नहीं। यह नहीं बोल सकते कि सभी कांग्रेसी हैं। इसमें भी सच्चाई नहीं कि सभी की नियुक्तियां सिफारिश से हुईं। पीटीए शिक्षक संघ के प्रदेश अध्यक्ष विवेक मेहता ठीक ही सवाल करते हैं। सरकारी पद पर २४० दिन लगाने के बाद उसे हटाया नहीं जाता, उन्होंने तो ५-६ साल लगा दिए हैं। वे अब कहां जाएं? पीटीए शिक्षक ही 'अछूतÓ क्यों? उन्हें ही अपवाद क्यों बनाया जा रहा है? उधर, बेरोजगार प्रशिक्षित संघ ने जाहू में बैठक कर चेतावनी दी है कि यदि मार्च तक पीटीए शिक्षकों को नहीं हटाया जाता तो वे प्रदेश भर में चक्का जाम शुरू करेंगे। लगा हुआ रोजगार छीनने की रीत मत डालिए। यह मत भूलिए कल को आप भी उसी पंक्ति में खड़े होंगे। कांग्रेस के नेता यह दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार बनते ही पीटीए शिक्षक बहाल होंगे। तो क्या तब तक वे बेकार बैठे रहेंगे?
इतना ही नहीं। कांग्रेस सरकार ने भी २००३ में पूर्व सरकार के नियुक्त किए गए स्नातक अध्यापकों को नौकरी पर नहीं रखा था। भाजपा ने छह साल बाद उनको राहत दी है। अनुबंध पर ६४ डेंटल डाक्टरों की नौकरी जाते-जाते बची है। उनका अनुबंध मार्च तक बढ़ा है। सरकार तर्क दे रही है कि वे नौकरी के लिए दोबारा से आवेदन करें। दुआ करें इनका अनुबंध सदा के लिए रिन्यू हो जाए। शिमला विश्वविद्यालय में भी ऐसे कई उदाहरण हैं। एक सरकार की नियुक्ति को दूसरी ने अवैध करार दिया। अभी प्रदेश के एक कालेज में चार लेक्चरर रातों-रात रखे गए। किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। इनमें कुछ तो वांछित शैक्षणिक योग्यता भी पूरी नहीं करते। शिक्षित वर्ग असमंजस में है। हर सरकार नए नियम बनाकर शिक्षक भर्ती कर रही है। प्रदेश में अध्यापकों की एक दर्जन से अधिक श्रेणियां हो गई हैं। एक जैसे शैक्षणिक कार्य के बावजूद भारी वेतन विसंगतियां हैं। ठोस शिक्षा नीति और भर्ती नीति का अभाव साफ दिखता है। घोर अस्थिरता है। हम किस परंपरा को जन्म दे रहे हैं?
क्या इस तरह नौकरी से हटाना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? कर्मचारियों को ही घुंघरू क्यों बनाएं? नेताओं को कानून के दायरे में लाइए, जो ऐसी नियुक्तियां करवा रहे हैं। अधिकारियों के खिलाफ भी फाइल खोलिए। आम आदमी ही क्यों पिसे? पता नहीं हम किस जुबान से विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करते हैं? कहीं से आशा की किरण उदय होती नहीं दिखती। लेकिन फिर भी। उम्मीद रखिए। वह सुबह कभी तो आएगी।